वैद्यनाथ मिश्र ’यात्री’
हे मातृभूमि, अंतिम प्रणाम
अहिबातक पातिल फोड़ि-फाड़ि
पहिलुक परिचय सब तोड़ि-ताड़ि
पुरजन-परिजन सब छोड़ि-छाड़ि
हम जाय रहल छी आन ठाम
माँ मिथिले, ई अंतिम प्रणाम
दुःखओदधिसँ संतरण हेतु
चिरविस्मृत वस्तुक स्मरण हेतु
सूतल सृष्टिक जागरण हेतु
हम छोड़ि रहल छी अपना गाम
माँ मिथिले ई अंतिम प्रणाम
कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप
हम टा संतति, से हुनक पाप
ई जानि ह्वैन्हि जनु मनस्ताप
अनको बिसरक थिक हमर नाम
माँ मिथिले, ई अंतिम प्रणाम !
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Abhishek Mishra said...
June 16, 2007 at 11:40 PM
ahen neek neek kavi ke aaro kavita ke rasaswadan karao.
Abhishek Mishra said...
June 16, 2007 at 11:41 PM
"तड़प रहे हैं कोटी-कोटी ग्राम देवता
अक्षत और जल के बिना ही नग्न मूर्छित हो,
सूखी आंत, मींचे दांत, पथ्राये हुए नैन
टकटकी लगाए हैं, पाटने कि ओर, दिल्ली कि ओर ।"
-- अमोघ
-- तार स्वर शीर्षक से (मैं तो तेरे पास में)
Abhishek Mishra said...
June 16, 2007 at 11:59 PM
Kavita sangrah me rup saundrya ki rachna kisne ki hai
INDRA KUMAR THAKUR said...
June 17, 2019 at 8:02 PM